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ज्यों के त्यों धरि दीनी चदरिया

AKSHAR
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संवत १४५५ में काशी की धरती पर एक ऐसे क्रांतिकारी व्यक्तित्व ने जन्म लिया, जिसने अपनी प्रखर वाणी से हमें झिंझोरा और सदियों से असमानता और पाखंड की नींद से सोये समाज को जाग्रत करने का प्रयास किया. उस व्यक्तित्व का नाम था ‘कबीर’. कबीर इस कार्य में कितने सफल हुए कहा नहीं जा सकता. क्यूँकि न तो समाज में समरसता आ पाई और न ही धरम के नाम पर पाखंड ही बंद हुए. आश्चर्य तो इस बात का है के जो कबीर आजीवन बाह्याचार का विरोध करते रहे उसी कबीर के नाम पर आडम्बर करने वालों की कमी नहीं. वास्तविकता यह है के हमने कबीर को पढ़ा, उनकी प्रशंसा के गीत गाये, कागज-मसि को न छूने वाले कबीर पर ग्रंथो के ढेर लगा दिए. लेकिन अफ़सोस हम उन्हें अपने जीवन में उतार नहीं पाए. हम न तो जातिगत अहम् से ऊपर उठ पाए न ही धार्मिक कट्टरता को छोड़कर धार्मिक सोहार्ध ही कायम कर पाए. कबीर हमे प्रेम, समरसता और धार्मिक भाईचारे की एक ऐसी चादर में लपेटना चाहते थे, जिसमें लिपट कर हम अपने लोक को सुखी और परलोक को सुहेला कर सकते थे. परन्तु हमारा दुर्भाग्य के हमने- “ज्यों के त्यों धरि दीनी चदरिया”. {रवीन्द्र कुमार}

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